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यूपी: घोसी में हार के आरोप झेल रहे ओपी राजभर अब क्या करेंगे?

यूपी: घोसी में हार के आरोप झेल रहे ओपी राजभर अब क्या करेंगे?

उपचुनाव में हार के बाद सबसे ज़्यादा रुसवाई ओम प्रकाश राजभर की हो रही है, हालांकि वो अब भी सरकार में मंत्री पद का दम भर रहे हैं। तो भाजपा उनपर टिप्पणी करने से अब भी बच रही है। ऐसे में राजभर अब क्या करने वाले हैं? भविष्य की राजनीति में बेहद महत्वपूर्ण होगा।

बीती 8 सितंबर की तारीख यूपी की राजनीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण थी, इस दिन 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में ‘इंडिया’ बनाम एनडीए के बीच पहला सेमीफाइनल मुकाबला हुआ, जो ‘इंडिया’ ने जीत लिया।

कहने का मतलब ये है कि घोसी उपचुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल सपा के कैंडिडेट सुधाकर सिंह ने भाजपा के दारा सिंह चौहान को बड़े अंतर से हरा दिया, जिसके बारे में शायद भाजपा ने सोचा तक नहीं होगा।

घोसी के जातीय समीकरण भी भाजपा के लिए मुफीद माने जा रहे थे, भाजपा ने अलग-अलग जाति-वर्ग के मतदाताओं को साधने के लिए अलग-अलग चेहरों को जिम्मेदारी दी थी। चौहान बिरादरी को साधने के लिए खुद पार्टी के उम्मीदवार दारा सिंह चौहान थे तो राजभर मतदाताओं के लिए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी यानी सुभासपा के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर। अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने प्रचार किया तो सवर्ण और दलित मतदाताओं के बीच दूसरे उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने। भूमिहार वोट साधने के लिए घोसी के ही निवासी बिजली मंत्री एके शर्मा को भी मैदान में उतार दिया गया। लेकिन सभी दांव धरे के धरे रह गए।

हालांकि इस शिकस्त के बाद सबसे ज़्यादा निशाने पर आए सुभासपा के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर। वही राजभर, जो 2022 में विधानसभा चुनाव से पहले सपा में शामिल होकर कह रहे थे, कि भाजपा को जड़ से खत्म कर दूंगा, और फिर जब भाजपा चुनाव जीत गई तब उनके पाले में आकर बैठ गए और कहने लग गए कि किसी भी हाल में सपा को जीतने नहीं दूंगा।

घोसी उपचुनाव के परिणाम के बाद ओम प्रकाश राजभर का एनडीए में भविष्य क्या होगा? योगी कैबिनेट में जगह मिलेगी या नहीं? कैबिनेट में जगह मिल भी गई तो कद का क्या होगा? ऐसे कई सवाल इस समय यूपी के राजनीतिक गलियारे में तैर रहे हैं।

इन सवालों का जवाब जानने के लिए हमने बात की वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश से…

उर्मिलेश कहते हैं कि राजभर एक नॉन सीरियस पॉलिटिशियन हैं, जिस इलाके से आते हैं, पहले वहां से बहुत अच्छे राजनेता निकलते रहे हैं, लेकिन हाल के वर्षों में वहां नॉन सीरियस राजनीति होने लग गई हैं, उसी की देन ओम प्रकाश राजभर भी हैं। क्योंकि ओम प्रकाश राजभर बात करते हैं दलितों की, तो एक बात जान लेने वाली है कि कांशीराम के साथ दलितों की राजनीति खत्म हो गई थी। यही कारण है कि दलितों को लीड करने वाले अलग-अलग बिरादरी के नेता उभरते रहे हैं। इन्हीं सब में उलझे हुए नेता हैं राजभर, जिनकी कोई विचारधारा या राजनीतिक लक्ष्य नहीं है। सिर्फ अपना दबदबा बनाने के लिए चुनाव लड़ते रहे हैं।

हमने सवाल किया कि ओम प्रकाश राजभर क्यों कह रहे हैं कि वे मायावती की वजह से चुनाव हारे?

उर्मिलेश: ओम प्रकाश राजभर की बात यहां पर बिल्कुल ग़लत है, क्योंकि मायावती अक्सर उपचुनावों में अपना कैंडिडेट नहीं देती हैं। अगर देती भी तो इसका बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ता। यहां इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते है कि भाजपा को अच्छा ही लगा होगा कि मायावती ने अपना कोई कैंडिडेट नहीं उतारा था।

अब राजभर का एनडीए में क्या रोल होने वाला है?

उर्मिलेश: ये यहीं रहेंगे, क्योंकि ये बग़ैर किसी विज़न के सिर्फ़ एक नेता बने रहना चाहते हैं। भाजपा को लगता है कि ये थोड़ा बहुत अपनी बिरादरी के वोट खींच सकते हैं, तो इस तरह से इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा ये कहना ग़लत नहीं होगा कि हो सकता है कि ये सपा में भी भाजपा की सहमति से ही शामिल हुए थे, अब ये तब तक ऐसे ही काम करते रहेंगे, जब तक इनकी बिरादरी इन्हें पूरी तरह से छोड़ नहीं देती।

इतना तो साफ है कि ओम प्रकाश राजभर की हालिया राजनीति इन बातों पर पुख्ता मुहर लगाती है। यानी वे अपनी राजनीति बग़ैर किसी विचार के आगे भी जारी रखने वाले हैं।

हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि सिर्फ सपा या फिर ‘इंडिया’ गठबंधन के बाकी दल ही नहीं बल्कि एनडीए के गठबंधन भी ओम प्रकाश राजभर को घेरने में कसर नहीं छोड़ रहे हैं। निषाद पार्टी ने राजभर के बड़बोलेपन पर सवाल उठा दिए थे, निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद ने हार के बाद राजभर को कम बोलने की सलाह दे डाली, उन्होंने राजभर को नसीहत देते हुए कहा कि “मैं राजभर से कहता हूं कि कम बोला करें… निषाद समाज ने तो भाजपा को वोट दिया है, हमें अपने संबंध ठीक रखने चाहिए।” वहीं समाजवादी पार्टी भी मंत्री बनाए जाने को लेकर उन पर तंज कस रही है।

हालांकि राजभर अब भी ये दावा ठोक रहे हैं कि कोई कुछ भी कर ले वो मंत्री बनकर रहेंगे। अब मंत्री पद के लिए या फिर ज़िम्मेदार ठहराए जाने का दंश झेलने के कारण राजभर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात करने वाले हैं। क्योंकि राजभर ने विरोधियों को जवाब देते हुए कहा था कि एनडीए के मालिक प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा हैं, न कि विरोधी दल।

क्योंकि घोसी उपचुनाव को साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए ‘इंडिया’ और एनडीए के बीच लिटमस टेस्ट के तौर पर देखा जा रहा था, और राजभर पहले कह भी चुके हैं कि उनका गठबंधन एनडीए के साथ लोकसभा के लिए हुआ है।

शायद इसी राह पर चलते हुए अब ओमप्रकाश राजभर आरोपों से दूर बिहार की ओर चल पड़े हैं, और एनडीए के लिए वहां ज़मीन तैयार करने में जुट गए हैं। ओम प्रकाश राजभर अब 16 सितंबर को गया और 19 सितंबर को भोजपुर में रैली करने वाले हैं। फिर 10 अक्टूबर को बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान में बड़ी जनसभा कर 2024 के सियासी संग्राम का उद्घोष करेंगे।

यहां एक बात ध्यान देने वाली है कि जहां सियासी हल्कों में ये बात होती रही है कि ‘इंडिया’ गठबंधन का अहम हिस्सा जेडीयू और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लोकसभा में उत्तर प्रदेश का रुख कर सकते हैं, यानी कुर्मी बाहुल्य फूलपुर से चुनाव लड़ सकते हैं, तो दूसरी ओर ओम प्रकाश राजभर बिहार में अपनी सियासत तलाश रहे हैं।

याद रखना होगा कि बीते साल अखिलेश यादव के साथ गठबंधन से अलग होने के बाद ओम प्रकाश राजभर ने बिहार की ओर रुख किया था। 2022 में पार्टी का स्थापना दिवस भी पटना के गांधी मैदान में जनसभा करके मनाया था। तब ओमप्रकाश राजभर ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जातीय जनगणना ना कराने को लेकर घेरा था। इसके बाद नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना कराने के निर्देश दिए थे। माना जा रहा है कि 2025 में बिहार में होने वाले विधानसभा के चुनाव में भी उनकी पार्टी ताल ठोकने वाली है।

आपको बता दें कि ओमप्रकाश राजभर की पार्टी पिछले 20 सालों से बिहार का लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़ते आए हैं।

2004 के लोकसभा चुनाव में एक सीट पर, 2009 में 9 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारा था। फिर एक साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में राजभर ने 6 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। 2014 के लोकसभा में राजभर ने पांच उम्मीदवारों को बिहार में उतारा था, 2015 के विधानसभा में 9 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा।

2019 के लोकसभा में राजभर ने दो सीटों बक्सर और मधेपुरा सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। उनके उम्मीदवारों को लगभग 31000 से लेकर 47000 तक वोट मिले थे। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजभर ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट का हिस्सा बन गए थे। जिसमें राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी जनता दल डेमोक्रेटिक, एआईएमआईएम, और जनवादी पार्टी सोशलिस्ट शामिल थीं। इस गठबंधन में ओमप्रकाश राजभर को लड़ने के लिए 5 सीटें मिली थीं।

बिहार में इतने चुनाव लड़ने के बाद राजभर की पार्टी आजतक न अपने सांसद बना सकी है, न विधायक।

इन सभी सियासी घटनाओं के बीच एक बात जो ध्यान देने वाली है, कि तमाम आरोपों के बीच भी भाजपा की ओर से ओम प्रकाश राजभर पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है, जबकि ऐसा कहा जाता रहा है कि ओम प्रकाश राजभर और दारा सिंह चौहान को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बहुत ज़्यादा पसंद नहीं करते हैं, और न ही ज़्यादा इनके पक्ष में रहते हैं।

फिर भी राजभर को सुरक्षित रखने के पीछे क्या कारण हो सकता है?

दरअसल ओम प्रकाश राजभर भले ही ज़्यादा बोल जाते हों, या फिर दलबदल कर जाते हों, लेकिन ये बात भी सच है कि उत्तर प्रदेश में करीब 4 फीसदी राजभर समाज के लोग हैं। और पूर्वांचल की 26 लोकसभा सीटों में 18 ज़िले राजभर अच्छे से कवर करते हैं, या यूं कह लें कि राजभर समाज हार-जीत का अंतर तय करता है।

ऐसे में भाजपा को बहुत अच्छे से मालूम है कि राजभर अकेले दम पर तो अपने समाज को इकट्ठा करने में अक्सर असमर्थ रहे हैं, लेकिन अगर उन्हें मोहरा बनाया जाए, तो जो थोड़ा बहुत जीत का अंतर रहता है, उसे अपनी ओर पलटा जा सकता है।

फिलहाल राजभर आने वाले वक्त में कहां रुकेंगे, ये तो कहा नहीं जा सकता। लेकिन वो उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, तो उनपर नज़र बनाए रखना भी बेहद ज़रूरी है।

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